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लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया

भैरों-उसके इष्ट को मैं जानता हूँ। जरा थानेदार जा जाएँ, तो बता दूँ, कौन इष्ट है।

 

बजरंगी जलकर बोला-अपनी बेर कैसी सूझ रही है! क्या वह झोंपड़ा था, जिसमें पहले आग लगी? ईंट का जवाब पत्थर मिलता ही है। जो किसी के लिए गढ़ा खोदेगा, उसके लिए कुऑं तैयार है। क्या उस झोंपड़े में आग लगाते समय समझे थे कि सूरदास का कोई है ही नहीं?

 

भैरों-उसके झोंपड़े में मैंने आग लगाई?

 

बजरंगी-और किसने लगाई?

 

भैरों-झूठे हो!

 

ठाकुरदीन-भैरों, क्यों सीनाजोरी करते हो! तुमने लगाई या तुम्हारे किसी यार ने लगाई, एक ही बात है। भगवान ने उसका बदला चुका दिया, तो रोते क्यों हो?

 

भैरों-सब किसी से समझ्रूगा।

 

ठाकुरदीन-यहाँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है।

 

भैरों ओठ चबाता हुआ चला गया। मानव-चरित्रा कितना रहस्यमय है! हम दूसरों का अहित करते हुए जरा भी नहीं झिझकते, किंतु जब दूसरें के हाथों हमें कोई हानि पहुँचती है, तो हमारा खून खौलने लगता है।

[3/8, 14:24] AliYa kHaN : अध्याय 32

 

सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्ता चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी।

 

इंद्रदत्ता-तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है या नहीं?

 

प्रभु सेवक-सर्वथा निर्दोष। मैं तो आज उसकी साधुता पर कायल हो गया। फैसला सुनाने के वक्त तक मुझे विश्वास था कि अंधो ने जरूर इस औरत को बहकाया है, मगर उसके अंतिम शब्दों ने जादू का-सा असर किया। मैं तो इस विषय पर एक कविता लिखने का विचार कर रहा हूँ।

 

इंद्रदत्ता-केवल कविता लिख डालने से काम चलेगा। राजा साहब की पीठ में धाूल लगानी पड़ेगी। उन्हें यह संतोष होने देना चाहिए कि मैंने अंधो से चक्की पिसवाई। वह समझ रहे होंगे कि अंधा रुपये कहाँ से लाएगा। दोनों पर 300 रुपये जुर्माना हुआ है, हमें किसी तरह से जुर्माना आज ही अदा करना चाहिए। सूरदास जेल से निकले, तो सारे शहर में उसका जुलूस निकालना चाहिए। इसके लिए 200 रुपये की और जरूरत होगी। कुल 500 रुपये हों, तो काम चल जाए। बोलो, देते हो?

 

प्रभु सेवक-जो उचित समझो, लिख लो।

 

इंद्रदत्ता-तुम 50 रुपये बिना कष्ट के दे सकते हो?

 

प्रभु सेवक-और तुमने अपने नाम कितना लिखा है?

 

इंद्रदत्ता-मेरी हैसियत 10 रुपये से अधिाक देने की नहीं। रानी जाह्नवी से 100 रुपये ले लूँगा। कुँवर साहब ज्यादा नहीं, तो 10 रुपये दे ही देंगे। जो कुछ कमी रह जाएगी, वह दूसरों से माँग ली जाएगी। सम्भव है, डाक्टर गांगुली सब रुपये खुद ही दे दें, किसी से माँगना ही पड़े।

 

प्रभु सेवक-सूरदास के मुहल्लेवालों से भी कुछ मिल जाएगा।

 

इंद्रदत्ता-उसे सारा शहर जानता है, उसके नाम पर दो-चार हजार रुपये मिल सकते हैं; पर इस छोटी-सी रकम के लिए मैं दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहता।

 

यों बातें करते हुए दोनों आगे बढ़े कि सहसा इंदु अपनी फिटन पर आती हुई दिखाई दी। इंद्रदत्ता को देखकर रुक गई और बोली-तुम कब लौटे? मेरे यहाँ नहीं आए!

 

इंद्रदत्ता-आप आकाश पर हैं, मैं पाताल में हूँ, क्या बातें हों?

 

इंदु-आओ, बैठ जाओ, तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।

 

इंद्रदत्ता फिटन पर जा बैठा। प्रभु सेवक ने जेब से 50 रुपये का एक नोट निकाला और चुपके से इंद्रदत्ता के हाथ में रखकर क्लब को चल दिए।

 

इंद्रदत्ता-अपने दोस्तों से भी कहना।

 

प्रभु सेवक-नहीं भाई, मैं इस काम का नहीं हूँ। मुझे माँगना नहीं आता! कोई देता भी होगा, तो मेरी सूरत देखकर मुट्ठी बंद कर लेगा।

 

इंद्रदत्ता-(इंदु से) आज तो यहाँ खूब तमाशा हुआ।

 

इंदु-मुझे तो ड्रामा का-सा आनंद मिला। सूरदास के विषय में तुम्हारा क्या खयाल है?

 

इंद्रदत्ता-मुझे तो वह निष्कपट, सच्चा, सरल मनुष्य मालूम होता है।

 

इंदु-बस-बस यही मेरा भी विचार है। मैं समझती हूँ, उसके साथ अन्याय हुआ। फैसला सुनाते वक्त तक मैं उसे अपराधी समझती थी, पर उसकी अपील ने मेरे विचार में कायापलट कर दी। मैं अब तक उसे मक्कार, धूर्त, रँगा हुआ सियार समझती थी। उन दिनों उसने हम लोगों को कितना बदनाम किया! तभी से मुझे उससे घृणा हो गई थी। मैं उसे मजा चखाना चाहती थी। लेकिन आज ज्ञात हुआ कि मैंने उसके चरित्रा को समझने में भूल की। वह अपनी धुन का पक्का, निर्भीक, नि:स्पृह, सत्यनिष्ठ आदमी है, किसी से दबना नहीं जानता।

 

इंद्रदत्ता-तो इस सहानुभूति को क्रिया के रूप में भी लाइएगा? हम लोग आपस में चंदा करके जुर्माना अदा कर देना चाहते हैं। आप भी इस सत्कार्य में योग देंगी?

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